शारीरिक श्रम के अभाव, मानसिक तनाव, नकारात्मक चिन्तन, असंतुलित जीवन शैली, विरुद्ध आहार व प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के कारण विश्व में कैंसर, ह्रदयरोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप व मोटापा आदि रोगों का आतंक सा मचा हुआ है। प्रकृति हमारी माँ, जननी है। हमारी समस्त विकृतियों की समाधान हमारे ही आस-पास की प्रकृति में विद्यमान है, परन्तु सम्यक ज्ञान के अभाव में हम अपने आस-पास विद्यमान इन आयुर्वेद की जीवन दायिनी जड़ी-बूटियों से पूरा लाभ नहीं उठा पाते। श्रद्धेय आचार्य श्री बालकृष्ण जी ने वर्षों तक कठोर तप, साधना व संघर्ष करके हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों एवं जंगलो में भ्रमण करते हुए जड़ी बूटियों के दुर्लभ चित्रों का संकलन तथा अनेक प्रयोगों का प्रामाणिक वर्णन किया है। शोध एवं अनुभवों पर आधारित इस पुस्तक में वर्णित जड़ी-बूटियों के ज्ञान व प्रयोग से मानव मात्र लाभान्वित थे तथा करोड़ों वर्ष पुरानी आयुर्वेद की विशुद्ध परम्परा का सार्थक प्रचार-प्रसार हो इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ आयुर्वेद के महान् मनीषी आचार्य श्री बालकृष्ण जी को वैदिक परम्पराओं की प्रशस्थ सेवाओं के लिए कोटिशः साधुवाद
भारत में औषधीय पौधों की जानकारी वैदिक काल से ही परम्परागत अक्षुण्य चली आई है। अथर्ववेद मुख्य रूप से आयुर्वेद का सबसे प्राचीन उद्गम स्त्रोत है। भारत में ऋषि-मुनि अधिकतर जंगलों में स्थापित आश्रमों व गुरुकुलों में ही निवास करते थे और वहाँ रहकर जड़ी-बूटियों का अनुसंधान व उपयोग निरन्तर करते रहते थे। इसमें इनके सहभागी होते थे पशु चराने वाले ग्वाले। ये जगह-जगह से ताजी वनौषधियों को एकत्र करते थे और इनमें निर्मित औषधियों से जन-जन की चिकित्सा की जाती थी। इनका प्रभाव भी चमत्कारिक होता था क्योंकि इनकी शुद्धता, ताजगी एवम् सही पहचान से ही इसे ग्रहण किया जा सकता है। परिणामस्वरूप जनमानस पर इसका इतना गहरा प्रभाव हुआ कि कालान्तर में आयुर्वेद का विकास व परिवर्धन करने वाले मनीषी जैसे धन्वंतरि, चरक, सुश्रुत आदि अनेकों महापुरुषों के अथक प्रयास से विश्व की प्रथम चिकित्सा पद्धति प्रचलन में आई एवं शीघ्र ही प्रगति शिखर पर पहुँच गई। उस समय अन्य कोई भी चिकित्सा पद्धति इसकी प्रतिस्पर्धा में नहीं होने का अनुमान सुगमता से हो सकता है। शल्य चिकित्सक सुश्रुत अथवा अन्य कई ऐसे उल्लेख वेदों में मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कृतिम अंग व्यवस्था भी उस समय प्रचलित थी। भारत से यह चिकित्सा पद्धति पश्चिम में यवन देशों चीन, तिब्बत, श्रीलंका बर्मा (म्यांमार) आदि देशों से अपनायी गयी तथा काल व परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन हुये और आगे भी प्रगति होकर नयी चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार एवं प्रसार हुआ।
भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि यवन व अंग्रेज शासन काल में भी लोग इसमें विश्वास खो नहीं सके जबकि शासन की ओर से इस पद्धति को नकारात्मक दृष्टि से ही संघर्षरत रहना पड़ा। भारत के सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचल में तो लोग केवल जड़ी-बूटियों पर ही मुख्यतः आश्रित रहते रहे। उन्हें यूनानी व एलोपैथिक चिकित्सा पद्धतियों का लाभ प्राप्त होना सम्भव नहीं हो सका क्योंकि ये ग्रामीण अंचल में कम ही प्रसारित हो पाये। आज भी भारत के ग्रामीण जन मानस पटल पर इन जड़ी-बूटियों में ही दृढ़ विश्वास आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी पाया जाता है लेकिन इसे सुरक्षित करने के उपाय अभी भी संतोषजनक नहीं हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि साधारण जनता आज भी ऐलोपैथिक चिकित्सा से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। किसी बीमारी की चिकित्सा के लिये जो दवाइयां खाई जाती हैं उसमें आंशिक लाभ तो हो जाता है किन्तु एक अन्य बीमारी का उदय हो जाता है। जड़ी-बूटियों से इस प्रकार के दुष्परिणाम कभी ही प्रकट नहीं होते हैं, इसके अतिरिक्त दवाइयों व चिकित्सा के खर्च का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। साधारण बीमारियों के इलाज में भी खर्चा बढ़ रहा है जबकि जड़ी-बूटी चिकित्सा में बहुत कम व्यय में चिकित्सा हो सकती हैं मुख्यतः साधारण रोगों जैसे सर्दी-जुकाम, खांसी, पेट रोग, सिर दर्द, चर्म रोग आदि में आस-पास होने वाले पेड़-पौधों व जड़ियों से अति शीघ्र लाभ हो जाता है और खर्च भी कम होता है। ऐसे परिस्थितियों में जड़ी-बूटी की जानकारी का महत्व अधिक हो जाता है इसके अतिरिक्त लोग दवाइयों में धोखाधड़ी, चिकित्सकों के व्यवहार, अनावश्यक परीक्षणों व इनके दुष्परिणामों से खिन्न होते जा रहे हैं।
‘आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्य’ में आम पाये जाने वाले पौधों की चिकित्सा-सम्बन्धी जानकारी सरल व सुगम ढंग से प्रस्तुत की गई है इसके उपयोग के सरल तरीके भी साथ में दिये गये हैं। जिन्हें रोगानुसार किसी योग्य चिकित्सक की सलाह से उपयोग करके सद्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
भारत में औषधीय पौधों की जानकारी वैदिक काल से ही परम्परागत अक्षुण्य चली आई है। अथर्ववेद मुख्य रूप से आयुर्वेद का सबसे प्राचीन उद्गम स्त्रोत है। भारत में ऋषि-मुनि अधिकतर जंगलों में स्थापित आश्रमों व गुरुकुलों में ही निवास करते थे और वहाँ रहकर जड़ी-बूटियों का अनुसंधान व उपयोग निरन्तर करते रहते थे। इसमें इनके सहभागी होते थे पशु चराने वाले ग्वाले। ये जगह-जगह से ताजी वनौषधियों को एकत्र करते थे और इनमें निर्मित औषधियों से जन-जन की चिकित्सा की जाती थी। इनका प्रभाव भी चमत्कारिक होता था क्योंकि इनकी शुद्धता, ताजगी एवम् सही पहचान से ही इसे ग्रहण किया जा सकता है। परिणामस्वरूप जनमानस पर इसका इतना गहरा प्रभाव हुआ कि कालान्तर में आयुर्वेद का विकास व परिवर्धन करने वाले मनीषी जैसे धन्वंतरि, चरक, सुश्रुत आदि अनेकों महापुरुषों के अथक प्रयास से विश्व की प्रथम चिकित्सा पद्धति प्रचलन में आई एवं शीघ्र ही प्रगति शिखर पर पहुँच गई। उस समय अन्य कोई भी चिकित्सा पद्धति इसकी प्रतिस्पर्धा में नहीं होने का अनुमान सुगमता से हो सकता है। शल्य चिकित्सक सुश्रुत अथवा अन्य कई ऐसे उल्लेख वेदों में मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कृतिम अंग व्यवस्था भी उस समय प्रचलित थी। भारत से यह चिकित्सा पद्धति पश्चिम में यवन देशों चीन, तिब्बत, श्रीलंका बर्मा (म्यांमार) आदि देशों से अपनायी गयी तथा काल व परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन हुये और आगे भी प्रगति होकर नयी चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार एवं प्रसार हुआ।
भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि यवन व अंग्रेज शासन काल में भी लोग इसमें विश्वास खो नहीं सके जबकि शासन की ओर से इस पद्धति को नकारात्मक दृष्टि से ही संघर्षरत रहना पड़ा। भारत के सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचल में तो लोग केवल जड़ी-बूटियों पर ही मुख्यतः आश्रित रहते रहे। उन्हें यूनानी व एलोपैथिक चिकित्सा पद्धतियों का लाभ प्राप्त होना सम्भव नहीं हो सका क्योंकि ये ग्रामीण अंचल में कम ही प्रसारित हो पाये। आज भी भारत के ग्रामीण जन मानस पटल पर इन जड़ी-बूटियों में ही दृढ़ विश्वास आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी पाया जाता है लेकिन इसे सुरक्षित करने के उपाय अभी भी संतोषजनक नहीं हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि साधारण जनता आज भी ऐलोपैथिक चिकित्सा से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। किसी बीमारी की चिकित्सा के लिये जो दवाइयां खाई जाती हैं उसमें आंशिक लाभ तो हो जाता है किन्तु एक अन्य बीमारी का उदय हो जाता है। जड़ी-बूटियों से इस प्रकार के दुष्परिणाम कभी ही प्रकट नहीं होते हैं, इसके अतिरिक्त दवाइयों व चिकित्सा के खर्च का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। साधारण बीमारियों के इलाज में भी खर्चा बढ़ रहा है जबकि जड़ी-बूटी चिकित्सा में बहुत कम व्यय में चिकित्सा हो सकती हैं मुख्यतः साधारण रोगों जैसे सर्दी-जुकाम, खांसी, पेट रोग, सिर दर्द, चर्म रोग आदि में आस-पास होने वाले पेड़-पौधों व जड़ियों से अति शीघ्र लाभ हो जाता है और खर्च भी कम होता है। ऐसे परिस्थितियों में जड़ी-बूटी की जानकारी का महत्व अधिक हो जाता है इसके अतिरिक्त लोग दवाइयों में धोखाधड़ी, चिकित्सकों के व्यवहार, अनावश्यक परीक्षणों व इनके दुष्परिणामों से खिन्न होते जा रहे हैं।
‘आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्य’ में आम पाये जाने वाले पौधों की चिकित्सा-सम्बन्धी जानकारी सरल व सुगम ढंग से प्रस्तुत की गई है इसके उपयोग के सरल तरीके भी साथ में दिये गये हैं। जिन्हें रोगानुसार किसी योग्य चिकित्सक की सलाह से उपयोग करके सद्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
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