Friday, 7 October 2016

पैर पर पैर रखकर बैठना

जब भी कोई व्यक्ति घर में पैर पर पैर रखकर बैठते हैं तो अक्सर जानकार वृद्धजनों द्वारा ऐसा नहीं करने की सलाह दी जाती है। पुराने समय से ही कई ऐसी बातें चली आ रही हैं जिनका संबंध हमारे जीवन में प्राप्त होने वाले सुख और दुख से जुड़ा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि पैर पर पैर रखकर बैठने से स्वास्थ्य को नुकसान होता है साथ ही इसे धर्म की दृष्टि से भी अशुभ समझा जाता है।

पैर के उपर पैर रख एक साइड बैठना अर्थात क्रॉस-लेग बैठना बैठने का सबसे आम स्टाइल बन गया है। सुदंर दिखने के लिए या कपड़ों की बनावट की वजह से हम इस स्टाइल को बैठने के लिए अधिक चुनते है लेकिन क्या आप जानतें है 'खूबसूरत' और 'आकर्षक' रूप से बैठने का यह स्टाइल हमारे स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

आइयें जानतें है पैर के उपर पैर रख एक साइड होकर बैठने पर आपके स्वास्थ्य पर क्या क्या प्रभाव पड़ते है।

       रक्त प्रवाह का बिगड़ना

जब आप क्रॉस लेग कर बैठते है तो रक्त चाल पैरों से वापिस हो कर छाती तक पहुंचने लगता है नतीजतन आपका रक्तचाप बढ़ने लगता है इसलिए अधिक समय तक पैर के उपर पैर रख एक साइड बैठने से परहेज करें। बैठने के तरीके के अतिरिक्त पैर की मांसपेशियों वाले व्यायाम उदाहरण के तौर पर इसोमेट्रिक व्यायाम से भी रक्त प्रवाह के लिए प्रतिरोध बढ़ जाता है।

गर्दन में दर्द और कूल्हों में तकलीफ

 स्वास्थ्य के लिहाज से पैर के उपर पैर रख एक साइड बैठना एक बेवकूफ मुद्रा है और आप अगर प्रति दिन तीन घंटे तक क्रॉस लेग कर बैठते है तो स्वास्थ्य संबंधी कुछ गंभीर समस्याएं उत्पन्न हो सकती है क्योकि जब आप क्रॉस लेग कर बैठते है तो रीढ़ की हड्डी पर अधिक दबाव पड़ता है जिसकी वजह से पीठ के निचले हिस्से गर्दन और कमर में दर्द उत्पन्न होने लगता है।

    नसों को कमजोर बनाता है
 
जब आप क्रॉस लेग कर बैठते है तो यह न केवल आपके रक्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न करते है और आपकी नसों को कमजोर होने का एक कारण बनतें है। पैर के उपर पैर रख कर एक साइड बैठने से नसों में सूजन पैदा हो जाती है और ऐसी एकत्रित नसों को स्पाइडर वेंस कहा जाता है।

   लकवा और शक्तिहीन बनाना

 पेरोनल नर्व पैर में प्रमुख तंत्रिका होती है जो घुटने के नीचे होती है और यह पैरों पैर के बाहर से गुजरती है। अगर आप लम्बी अवधि तक क्रॉस लेग पोजीसन में बैठते है तो आपके पेरोनल तंत्रिका पर दबाव पैदा होता है और इस कारण कई बार पैरों और हाथों की मांसपेशियों में टेम्पररी अर्थात अस्थाई लक़वा की समस्या उत्पन्न हो जाती है बार-बार यह समस्या उत्पन्न होने से हमारी मांसपेशियां शक्तिहीन बनने लगती है जो बाद में गंभीर बीमारी का रूप ले लेती है।

सिर्फ बैठने की गलत आदत की वजह से हमें अगर इतनी खतरनाक स्वास्थ्य तकलीफ़ होती है तो हमारे लिए इससे बुरा कुछ नही हो सकता है इसलिए अगली बार जब भी आप क्रॉस लेग पोजीसन में बैठने लगे तो इस स्थिति में बैठने से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का ध्यान जरुर कर लें।

यदि किसी पूजन कार्य में या शाम के समय पैर पर पैर रखकर बैठते हैं तो महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती है। धन संबंधी कार्यों में विलंब होता है। पैसों की तंगी बढ़ती है। शास्त्रों के अनुसार शाम के समय धन की देवी महालक्ष्मी पृथ्वी भ्रमण पर रहती हैं ऐसे में यदि कोई व्यक्ति पैर पर पैर रखकर बैठा रहता है तो देवी उससे नाराज हो जाती हैं। लक्ष्मी की नाराजगी के बाद धन से जुड़ी परेशानियां झेलना पड़ती हैं। अत: बैठते समय ये बात ध्यान रखें। पैर पर पैर रखकर न बैठें।..................

बैठे-बैठे पैर भी नहीं हिलाना चाहिए। काफी लोगों की आदत होती है कि वे बैठे-बैठे पैर हिलाते हैं जबकि यह कार्य भी शास्त्रों के अनुसार वर्जित किया गया है।

कहते है जिससे कर्ज बढता है और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ऐसा करने से पैरों से संबंधित बीमारियां होने की संभावनाएं बढ़ती हैं। कम उम्र में ही जोड़ों में दर्द प्रारंभ हो सकता है।
 ही............🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉                        
[10:47 AM, 9/27/2016] +91 73896 00505: 🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉........
शारीरिक श्रम के अभाव, मानसिक तनाव, नकारात्मक चिन्तन, असंतुलित जीवन शैली, विरुद्ध आहार व प्रकृति के बिगड़ते संतुलन के कारण विश्व में कैंसर, ह्रदयरोग, मधुमेह, उच्च रक्तचाप व मोटापा आदि रोगों का आतंक सा मचा हुआ है। प्रकृति हमारी माँ, जननी है। हमारी समस्त विकृतियों की समाधान हमारे ही आस-पास की प्रकृति में विद्यमान है, परन्तु सम्यक ज्ञान के अभाव में हम अपने आस-पास विद्यमान इन आयुर्वेद की जीवन दायिनी जड़ी-बूटियों से पूरा लाभ नहीं उठा पाते। श्रद्धेय आचार्य श्री बालकृष्ण जी ने वर्षों तक कठोर तप, साधना व संघर्ष करके हिमालय की दुर्गम पहाड़ियों एवं जंगलो में भ्रमण करते हुए जड़ी बूटियों के दुर्लभ चित्रों का संकलन तथा अनेक प्रयोगों का प्रामाणिक वर्णन किया है। शोध एवं अनुभवों पर आधारित इस पुस्तक में वर्णित जड़ी-बूटियों के ज्ञान व प्रयोग से मानव मात्र लाभान्वित थे तथा करोड़ों वर्ष पुरानी आयुर्वेद की विशुद्ध परम्परा का सार्थक प्रचार-प्रसार हो इन्हीं मंगल कामनाओं के साथ आयुर्वेद के महान् मनीषी आचार्य श्री बालकृष्ण जी को वैदिक परम्पराओं की प्रशस्थ सेवाओं के लिए कोटिशः साधुवाद

भारत में औषधीय पौधों की जानकारी वैदिक काल से ही परम्परागत अक्षुण्य चली आई है। अथर्ववेद मुख्य रूप से आयुर्वेद का सबसे प्राचीन उद्गम स्त्रोत है। भारत में ऋषि-मुनि अधिकतर जंगलों में स्थापित आश्रमों व गुरुकुलों में ही निवास करते थे और वहाँ रहकर जड़ी-बूटियों का अनुसंधान व उपयोग निरन्तर करते रहते थे। इसमें इनके सहभागी होते थे पशु चराने वाले ग्वाले। ये जगह-जगह से ताजी वनौषधियों को एकत्र करते थे और इनमें निर्मित औषधियों से जन-जन की चिकित्सा की जाती थी। इनका प्रभाव भी चमत्कारिक होता था क्योंकि इनकी शुद्धता, ताजगी एवम् सही पहचान से ही इसे ग्रहण किया जा सकता है। परिणामस्वरूप जनमानस पर इसका इतना गहरा प्रभाव हुआ कि कालान्तर में आयुर्वेद का विकास व परिवर्धन करने वाले मनीषी जैसे धन्वंतरि, चरक, सुश्रुत आदि अनेकों महापुरुषों के अथक प्रयास से विश्व की प्रथम चिकित्सा पद्धति प्रचलन में आई एवं शीघ्र ही प्रगति शिखर पर पहुँच गई। उस समय अन्य कोई भी चिकित्सा पद्धति इसकी प्रतिस्पर्धा में नहीं होने का अनुमान सुगमता से हो सकता है। शल्य चिकित्सक सुश्रुत अथवा अन्य कई ऐसे उल्लेख वेदों में मिलते हैं जिससे ज्ञात होता है कृतिम अंग व्यवस्था भी उस समय प्रचलित थी। भारत से यह चिकित्सा पद्धति पश्चिम में यवन देशों चीन, तिब्बत, श्रीलंका बर्मा (म्यांमार) आदि देशों से अपनायी गयी तथा काल व परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन हुये और आगे भी प्रगति होकर नयी चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार एवं प्रसार हुआ।

भारत में आयुर्वेदिक चिकित्सा का जनमानस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि यवन व अंग्रेज शासन काल में भी लोग इसमें विश्वास खो नहीं सके जबकि शासन की ओर से इस पद्धति को नकारात्मक दृष्टि से ही संघर्षरत रहना पड़ा। भारत के सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचल में तो लोग केवल जड़ी-बूटियों पर ही मुख्यतः आश्रित रहते रहे। उन्हें यूनानी व एलोपैथिक चिकित्सा पद्धतियों का लाभ प्राप्त होना सम्भव नहीं हो सका क्योंकि ये ग्रामीण अंचल में कम ही प्रसारित हो पाये। आज भी भारत के ग्रामीण जन मानस पटल पर इन जड़ी-बूटियों में ही दृढ़ विश्वास आदिवासी क्षेत्रों में अभी भी पाया जाता है लेकिन इसे सुरक्षित करने के उपाय अभी भी संतोषजनक नहीं हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि साधारण जनता आज भी ऐलोपैथिक चिकित्सा से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। किसी बीमारी की चिकित्सा के लिये जो दवाइयां खाई जाती हैं उसमें आंशिक लाभ तो हो जाता है किन्तु एक अन्य बीमारी का उदय हो जाता है। जड़ी-बूटियों से इस प्रकार के दुष्परिणाम कभी ही प्रकट नहीं होते हैं, इसके अतिरिक्त दवाइयों व चिकित्सा के खर्च का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। साधारण बीमारियों के इलाज में भी खर्चा बढ़ रहा है जबकि जड़ी-बूटी चिकित्सा में बहुत कम व्यय में चिकित्सा हो सकती हैं मुख्यतः साधारण रोगों जैसे सर्दी-जुकाम, खांसी, पेट रोग, सिर दर्द, चर्म रोग आदि में आस-पास होने वाले पेड़-पौधों व जड़ियों से अति शीघ्र लाभ हो जाता है और खर्च भी कम होता है। ऐसे परिस्थितियों में जड़ी-बूटी की जानकारी का महत्व अधिक हो जाता है इसके अतिरिक्त लोग दवाइयों में धोखाधड़ी, चिकित्सकों के व्यवहार, अनावश्यक परीक्षणों व इनके दुष्परिणामों से खिन्न होते जा रहे हैं।

‘आयुर्वेद जड़ी-बूटी रहस्य’ में आम पाये जाने वाले पौधों की चिकित्सा-सम्बन्धी जानकारी सरल व सुगम ढंग से प्रस्तुत की गई है इसके उपयोग के सरल तरीके भी साथ में दिये गये हैं। जिन्हें रोगानुसार किसी योग्य चिकित्सक की सलाह से उपयोग करके सद्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।.............🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉                        
[2:28 PM, 9/27/2016] +91 95943 61618: शिशु रोग मुक्ति का उपाय
१. कपूर की चकतियों की माला गले में धारण कराने से शिशु के दांत सरलता से निकल आते हैं।
२. पीपल, आवलें का रास व धाय के पुष्प-इनको पीसकर यह मिश्रण मसूड़ों पर लगाने से दांत सहजता से जैम जाते हैं।
३. कुत्ते के दांत को ताबीज में रखकर बच्चे के गले में पहनाने से दांत सरलता से निकलते हैं।
४. बच्चे के दांत सरलता से निकालें, इसके लिए संभालू की जड़ का ताबीज बनाकर गले में लटकाएं।
५. तांबे या लौह का कड़ा बच्चे के हाथ-पैरों में पहनाने से उसके दांत सरलता से निकल आते हैं। साथ ही दृष्टिदोष भी नहीं होता।
६. जिस स्त्री के बच्चों के दांत सरलता से न निकलते हों, तो बच्चे के गले में कड़वी तुम्बी के बीज का ताबीज दाल दें। बच्चे को आभास भी नहीं होगा की कब दांत निकल आए।
७. पत्थरचूर की जड़ को ताम्बे के ताबीज में भरवाकर, लाल सूती डोरे की सहायता से बच्चे के गले में लटका दें। इस प्रयोग से दांत निकलते समय कोई कष्ट नहीं होता और हरे-पीले रंग के होने वाले दस्त भी बंद हो जाते हैं।
८. यदि शिशु माँ के स्तनपान करने के तुतंत बाद ही वमन कर दे, तो उसके समीप तभी कांसे का कोई भी बर्तन बजा दें। इस प्रयोग से वमन का वेग शांत हो जाएगा।
९. यदि बच्चे की नाभि पाक गई हो, तो बकरी की मैंगनी जलाकर उसकी राख को ठंडी करके नाभि पर बुरक दें। इससे नाभि की सूजन भी दूर हो जाएगी। ऐसे बच्चे की कमर में कला धागा बांधणा चाहिए।
१०. पीपल के पत्ते व छाल को बारीक पीसकर तथा उसमे शहद मिलाकर लेप करने से बच्चों के मुह के छले ठीक हो जाते हैं।
११. यदि कफ-विकृति के कारण बच्चे की पसली चल रही हो और इस कारण उसे ज्वर भी हो गया हो तो रैंडी का तेल सीने पर मलकर ऊपर से बकायन की पत्ती हलकी गरम करके बाँध देनी चाहिए। इससे पसली का चलना बंद होगा तथा ज्वर भी उत्तर जाएगा। रैंडी के तेल के स्थान पर तारपीन का तेल भी मला जा सकता है।
१२. बकरे के दाढ़ी के बाल किसी ताबीज में भरकर, गंधक की धूनी देकर, काले सूती धागे की सहायता से बच्चे के गले में लटका दें। इस क्रिया से चौथैया ज्वर चढ़ना बंद हो जाएगा।
१३. यदि सुख रोग के कारण बच्चा पीला पद गया हो तो मजीठ की लकड़ी में छिद्र करके और सूती धागा पिराकर उसके गले में डाल दें। इस प्रयोग से सुख रोग समाप्त हो जाएगा तथा बच्चा नीरोग होकर हष्ट-पुष्ट व स्वस्थ हो जाएगा।
१४. पूरब दिशा में उत्पन्न सम्भालू की जड़ को बच्चे के गले में सूती धागे की सहायता से पहना दें। इस टोटके से अंडकोष-सम्बन्धी कोई रोग नहीं होता है।
१५. सूती कपडे की थैली में काले कोवे की बीत बांधकर, बच्चे के गले में सूती धागे की सहायता से लटका दें। इस टोटके के प्रयोग से बच्चे का गिरा हुआ काग यानी कौआ बैठ जाता है। यदि इसके कारण बच्चे को खांसी हो गई हो, तो वो भी टोटके के इस प्रयोग से ठीक हो जाती है। यह प्रयोग किसी रविवार या मंगलवार के दिन करना चाहिए।
१६. बच्चे के एकत्रित किये गए मूत्र से (मॉल-त्याग के पश्चात) बच्चे की कांच धोएं और बाद में ताजा पानी से गुदा को भी धो डालें। कुछ सप्ताह के प्रयोग से ही कांच निकलना बंद हो जाएगी। इस रोग को गुदाभ्रंश के नाम से भी जाना जाता है।
१७. सफ़ेद कबूतर का जोड़ा घर में रखने (पालने) से बच्चे को जापोगा रोग की बाधा का भय नहीं रहता। इस रोग को ‘जम्हुआ’ के नाम से भी जाना जाता है।
१८. जिन छोटे बच्चों के सिर पर बाल न हों या कवर नाममात्र को हों तो किसी रविवार के दिन से रसौत व हाथीदांत की राख सिर पर नित्य मलने से बाल उग आते हैं।
१९. यदि दुधमुंहे (माँ का दूध पीने वाले) छोटे शिशु को बहुत तीव्रता से हिचकी आ रही हो तो उसके सिर व कलेजे पर कड़वे तेल की हलके हाथ से मालिश करने के उपरान्त एक तिनका लेकर और बच्चे के सिर के ऊपर हाथ करके, तोड़ते हुए, उस टुकड़े को बच्चे के पीछे की ओर फ़ेंक दें। इस क्रिया से तुरंत हिचकी आना बंद हो जाएगी।                        
[7:14 PM, 9/27/2016] +91 70678 22369: अर्जुन : हृदय रोग की जड़ी


शरीर शास्त्री वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने अनुसंधान व प्रयोगों में 'अर्जुन' वृक्ष को हृदय रोग की चिकित्सा में बहुत गुणकारी पाया है।


आयुर्वेद ने तो सदियों पहले इसे हृदय रोग की महान औषधि घोषित कर दिया था। आयुर्वेद के प्राचीन विद्वानों में वाग्भट, चक्रदत्त और भावमिश्र ने इसे हृदय रोग की महौषधि स्वीकार किया है।



विभिन्न भाषाओं में नाम : संस्कृत- ककुभ। हिन्दी- अर्जुन, कोह। मराठी- अर्जुन सादड़ा। गुजराती- सादड़ो । तेलुगू- तेल्लमद्दि। कन्नड़- मद्दि। तमिल मरुतै, बेल्म। इंग्लिश- अर्जुना। लैटिन- टरमिनेलिया अर्जुन।



गुण : यह शीतल, हृदय को हितकारी, कसैला और क्षत, क्षय, विष, रुधिर विकार, मेद, प्रमेह, व्रण, कफ तथा पित्त को नष्ट करता है।



परिचय : इसका वृक्ष 60 से 80 फीट तक ऊंचा होता है। इसके पत्ते अमरूद के पत्तों जैसे होते हैं। यह विशेषकर हिमालय की तराई, बंगाल, बिहार और मध्यप्रदेश के जंगलों में और नदी-नालों के किनारे पंक्तिबद्ध लगा हुआ पाया जाता है। ग्रीष्म ऋतु में फल पकते हैं।



उपयोग : इसका मुख्य उपयोग हृदय रोग के उपचार में किया जाता है। यह हृदय रोग की महाऔषधि माना जाता है। इसके अलावा इसका उपयोग रक्तपित्त, प्रमेह, मूत्राघात, शुक्रमेह, रक्तातिसार तथा क्षय और खांसी में भी लाभप्रद रहता है।


हृदय रोग : हृदय रोग के रोगी के लिए अर्जुनारिष्ट का सेवन बहुत लाभप्रद सिद्ध हुआ है। दोनों वक्त भोजन के बाद 2-2 चम्मच (बड़ा चम्मच) यानी 20-20 मि.ली. मात्रा में अर्जुनारिष्ट आधा कप पानी में डालकर 2-3 माह तक निरंतर पीना चाहिए। इसके साथ ही इसकी छाल का महीन चूर्ण कपड़े से छानकर 3-3 ग्राम (आधा छोटा चम्मच) मात्रा में ताजे पानी के साथ सुबह-शाम सेवन करना चाहिए।


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[8:27 PM, 9/27/2016] +91 96624 92936: कई बीमारियों का एक साथ छोटा सा प्रयोग

तुलसी की 21 से 35 पत्तियाँ स्वच्छ खरल या सिलबट्टे (जिस पर मसाला न पीसा गया हो) पर चटनी की भांति पीस लें और 10 से 30 ग्राम मीठी दही में मिलाकर नित्य प्रातः खाली पेट तीन मास तक खायें।
ध्यान रहे दही खट्टा न हो और यदि दही माफिक न आये तो एक-दो चम्मच शहद मिलाकर लें।
छोटे बच्चों को आधा ग्राम दवा शहद में मिलाकर दें। दूध के साथ भुलकर भी न दें। औषधि प्रातः खाली पेट लें। आधा एक घंटे पश्चात नाश्ता ले सकते हैं। दवा दिनभर में एक बार ही लें
कैंसर जैसे असह्य दर्द और कष्टप्रद रोगो में २-३ बार भी ले सकते हैं।
इसके तीन महीने तक सेवन करने से खांसी, सर्दी, ताजा जुकाम या जुकाम की प्रवृत्ति, जन्मजात जुकाम, श्वास रोग, स्मरण शक्ति का अभाव, पुराना से पुराना सिरदर्द, नेत्र-पीड़ा, उच्च अथवा निम्न रक्तचाप, ह्रदय रोग, शरीर का मोटापा, अम्लता, पेचिश, मन्दाग्नि, कब्ज, गैस, गुर्दे का ठीक से काम न करना, गुर्दे की पथरी तथा अन्य बीमारियां, गठिया का दर्द, वृद्धावस्था की कमजोरी, विटामिन ए और सी की कमी से उत्पन्न होने वाले रोग, सफेद दाग, कुष्ठ तथा चर्म रोग, शरीर की झुर्रियां, पुरानी बिवाइयां, महिलाओं की बहुत सारी बीमारियां, बुखार, खसरा आदि रोग दूर होते हैं।यह प्रयोग कैंसर में भी बहुत लाभप्रद है।                        
[12:04 AM, 9/28/2016] +91 73896 00505: 🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉...........
अपराजिता.......

यह एक बेल है, जो बगीचों  और घरो में सुन्दरता बढाने के लिए लगाई जाती है। बारिश के दिनों में इसमें फलिया और फूल लगते है। इसमें दो रंग के फूल लगते है, सफेद और नीले ।

इस्तेमाल का तरीका-

सिरदर्द में अपराजिता की फली की 8-10 बूँद रस को या उसकी जड़ के रस को सुबह खाली पेट नाक में डालने से सिरदर्द मिट जाता है। आधे सिरदर्द में (माईग्रेन) इसके बीजों के चार-ख्सा बूँद रस को नाक में डालने से फायदा होता है।खाँसी, बच्चों मे कुक्कुर खाँसीऔर दमें मे इसकी जड़ का शर्बत बनाकर पीने से लाभ होता है।

टान्सिल की सूजन में गले में छाले या आवाज बन्द होने पर,अपराजिता के 10 ग्राम पत्तों को आधा लीटर पानी में इतना उबाले कि आधा पानी शेष रहे, इस काढ़ेको मुँह में 5-10 मिनट तक रखने से या कुल्ला करने से लाभ होता है।

गलगण्ड /गले में गाँठ होने पर अपराजिता की जड़ के आधे चम्मच चूर्ण को घी में मिलाकर पीने से या इसके फल के चूर्ण को गले के अंदर लगाकर धिसने से लाभ होता हे।

पीलिया मे इसकी जड़ का चूर्ण 1चम्मच की मात्रा में मट्ठे के साथ देने से पीलिया मिटता है।

गठिया और पेशाब की समस्याओं में आधा चम्मच सूखे जड की चूर्ण को पानी या दूध में दिन में 2-3बार प्रयोग करने से लाभ होता हैं ।

सफेद फूल वाली अपराजिता की 5 ग्राम छाल या पत्तों को 1 ग्राम जड़ को बकरी के दूध में पीसकर और छानकर शहद मिलाकर कुछ दिनों तक सुबह शाम मिलाकर पिलाने से गिरता हुआ गर्भ ठहर जाता है, और कोई पीड़ा नहीं रहती है।

पेशाब की थैली में पथरी होने पर इसकी पाँच ग्राम जड़ को चावलो के धोए हुए पानी मे पीस, छानकर कुछ दिन तक सुबह शाम तक पिलाने से पथरी कट कर निकल जाती है।सिरके के साथ

इसकी 10 से 20ग्राम जड को पीसकर लेप करने से उठते हुए फोड़े फूटकर बैठ जाते है।बच्चों मे पेट दर्द होने पर (अफारा) आदि इसके 1 या 2 बीजों को आग पर भूनकर माता या बकरी के दूध या घी के साथ चटाने से जल्दी लाभ होता है............🕉🕉🕉🕉🕉🕉                        
[12:04 AM, 9/28/2016] +91 73896 00505: .🕉🕉🕉🕉🕉🕉🕉.............गोखरु.........
.. किड्नी के लिए राम बाण की औषधि है गोखरू बंद किड्नी को चालू करता है किड्नी मे स्टोन को टुकड़े टुकड़े करके पेशाब के रास्ते बाहर निकल देता है क्रिएटिन यूरिया को बहुत ही झटके से जल्दी नीचे लाता है

पेशाब मे जलन हो पेशाब ना होती है इसके लिए भी यह काम करता है इसके बारे मे आयुर्वेद के जनक आचार्य श्रुशूत ने भी लिखा इसके अलावा कई विद्वानो ने इसके बारे मे लिखा है इसका प्रयोग हर्बल दवाओं मे भी होता है आयुर्वेद की दवाओं मे भी होता है

इसका सेवन गर्भावती महिला दूध पिलाने वाली महिला ब्रेस्ट कॅन्सर प्रोस्टेड कॅन्सर और पाइल्स के रोगी को नही करना चाहिए यह स्त्रियो के बंधत्व मे तथा पुरुषों के नपुंसकता मे भी बहुत उपयोगी होता है

इसके बारे मे सारी जानकरी गूगल पर भी उपलब्ध है गूगल पर सर्च करने के लिए मेडिकल यूज ऑफ गोखरू लिख दीजिए

इस दवा का प्रयोग करते समय आलू टमाटर और शिमला मिर्च का सेवन ना करे तो दवा का असर जल्दी होता है

इस दवा का सेवन हमारे जानकरी मे कई लोगो ने किया है जिनका क्रिएटिन 12.5 तक था उन्हे भी 15 दिनो मे 4, 5 तक आ गया इस लिए जिन लोगो को किडनी की प्राब्लम है वो इसका सेवन करे बहुत ही फायदा होता है.

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