खेचरी मुद्रा को योग को धारण करने वाली मुद्रा कहा गया है। मेरे मत के अनुसार इस मुद्रा के बिना योग की उच्च अवस्था को पाना असम्भव हैं। जिह्वा को बढ़ा कर या लम्बा करके मुख के अन्दर पीछे एक रन्द्र(सुराख) नीचे जाता हैं व एक रन्द्र ऊपर को जाता हैं जिसे कपाल कुहार कहते हैं। कपाल कुहार मे जिह्वा को प्रवेश करवाया जाता हैं। कपाल कुहार मे जब साधक की जिह्वा कुछ समय के लिए रूकने लग जाती है व जिह्वा को अन्दर रोककर साधक जब साधना करने लगता है तो प्राय उसे खेचरीवान मान लिया जाता है। मेरे अनुसार जिह्वा को मात्र अन्दर ले जाना पर्याप्त नहीं है, जिह्वा के अन्दर जाने मात्र से साधक को कोई विशेष लाभ नही मिलता। वास्तव में खेचरीवान वह साधक हैं जिसने जिह्वा को बढा कर कपाल गुहार में ले जा कर सुषुम्णा के माध्यम से प्राण वायु के नीचे जाने वाले मार्ग को बन्द कर देता है या बन्द कर दिया है या जो साधक जिह्वा के द्वारा आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो की तरफ जाने वाली प्राण वायु को रोक दिया हैं। वह साधक वास्तव में खेचरी वान हैं। जब तक प्राण वायु का प्रवाह नीचे की तरफ रहता हैं तब तक वास्तविक साधना नही होती। जब खेचरी मुद्रा के द्वारा प्राण वायु का प्रवाह ऊपर की तरफ होता हैं तभी वास्तविक साधना आरम्भ होती है। अब प्राण वायु के नीचे व ऊपर जाने के मार्ग पर चर्चा करते हैं।
साधारणतया सभी मनुष्य नासिका से श्वास लेते हैं। श्वास नासापुटों से होता हुआ गले के मार्ग द्वारा फेफडों मे चला जाता है। श्वास लेने की दो विधियाँ हैं। पहली साधारण विधि जिस विधि से प्रायः सभी श्वास लेते हैं। दूसरी योगिक विधि जिसे योग की भाषा में क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम की विधि से श्वास लिया जाता हैं। लेते तो इसे भी नासिका के द्वारा है परन्तु इसे गले की सहायता से बलपूर्वक खीचा जाता है। इस प्राणायाम को यदि आप सीखना चाहे तो किसी क्रिया योग के जानकार से या योगदा सत्संग सोसायटी के किसी भी आचार्य सें या जो भी ऐसा आचार्य जो क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम का जानकर हो उससे सीख सकते हैं। आप स्ंवय भी (जब तक कोई जानकार न मिले) लेने का प्रयास कर सकते हैं। श्वास खींचते हुए आरम्भ मे खर्राटे जैसे ध्वनि आ सकती है यदि ऐसी ध्वनि आये तो समझना ठीेक हैं।
जब साधक क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम खीचते है तो प्राण वायु सीधे फेफड़ो मे न जाकर सुषुम्णा नाड़ी मे प्रवेश करती हैं व आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो की तरफ जाती है व मूलाधार तक जाती है। यह क्रिया साधक को मजबूरन तब तक करनी पड़ती हैं जब तक साधक की खेचरी पूर्ण नही हो जाती। जब तक प्राण वायु नीचे की तरफ चलती रहती है तब तक साधना मे कोई विशेष उन्नति नहीं होती। साधना मे उन्नति तभी होती है जब साधक जिह्वा के द्वारा प्राणवायु को नीचे जाने से रोकता है व प्राण वायु को ऊपर की तरफ ले जाता है। निरन्तर अभ्यास से व सद्गुरू महावतार श्री हरि कि कृपा से व साधक के दृढ़ संकल्प से एक न एक दिन अवश्य ही दशम द्वार खुल जायेगा। दशम द्वार खुलने से ही साधना में वास्तविक आन्नद की अनुभूति होती हैं।
साधारणतया सभी मनुष्य नासिका से श्वास लेते हैं। श्वास नासापुटों से होता हुआ गले के मार्ग द्वारा फेफडों मे चला जाता है। श्वास लेने की दो विधियाँ हैं। पहली साधारण विधि जिस विधि से प्रायः सभी श्वास लेते हैं। दूसरी योगिक विधि जिसे योग की भाषा में क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम कहते हैं। इस प्राणायाम की विधि से श्वास लिया जाता हैं। लेते तो इसे भी नासिका के द्वारा है परन्तु इसे गले की सहायता से बलपूर्वक खीचा जाता है। इस प्राणायाम को यदि आप सीखना चाहे तो किसी क्रिया योग के जानकार से या योगदा सत्संग सोसायटी के किसी भी आचार्य सें या जो भी ऐसा आचार्य जो क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम का जानकर हो उससे सीख सकते हैं। आप स्ंवय भी (जब तक कोई जानकार न मिले) लेने का प्रयास कर सकते हैं। श्वास खींचते हुए आरम्भ मे खर्राटे जैसे ध्वनि आ सकती है यदि ऐसी ध्वनि आये तो समझना ठीेक हैं।
जब साधक क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम खीचते है तो प्राण वायु सीधे फेफड़ो मे न जाकर सुषुम्णा नाड़ी मे प्रवेश करती हैं व आज्ञा चक्र से नीचे के चक्रो की तरफ जाती है व मूलाधार तक जाती है। यह क्रिया साधक को मजबूरन तब तक करनी पड़ती हैं जब तक साधक की खेचरी पूर्ण नही हो जाती। जब तक प्राण वायु नीचे की तरफ चलती रहती है तब तक साधना मे कोई विशेष उन्नति नहीं होती। साधना मे उन्नति तभी होती है जब साधक जिह्वा के द्वारा प्राणवायु को नीचे जाने से रोकता है व प्राण वायु को ऊपर की तरफ ले जाता है। निरन्तर अभ्यास से व सद्गुरू महावतार श्री हरि कि कृपा से व साधक के दृढ़ संकल्प से एक न एक दिन अवश्य ही दशम द्वार खुल जायेगा। दशम द्वार खुलने से ही साधना में वास्तविक आन्नद की अनुभूति होती हैं।
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