हमारा शरीर पांच तत्त्वों (आकाश, वायु, जल, अग्नि, पृथ्वी) से मिलकर बना है। पंचतत्व निर्मित हमारे शरीर की रक्षा केवल भोजन से नहीं होती, बल्कि उसके साथ-साथ इस काम के लिए बाकी चार तत्व (आकाश, वायु, अग्नि और जल) भी बहुत आवश्यक होते हैं। अर्थात पांचों तत्त्वों का हमारे शरीर के लिए विशेष महत्व होता है। इनमें से किसी भी तत्व का कम या अधिक मात्रा में होने से हमारे शरीर पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और हमारा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जाता है। हम इन तत्वों की सहायता से विभिन्न प्रकार के रोगों से आसानी से बच सकते हैं लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पंच महाभूत प्राकृतिक चिकित्सा के साधन तो हैं ही किन्तु उनका मूल आधार राम-नाम-तत्व होता है। अर्थात रामनाम के बिना पूरी की पूरी प्राकृतिक चिकित्सा अधूरी है।
एक प्राकृतिक चिकित्सक भलीभांति जानता है कि प्रत्येक प्राणी के भीतर आरोग्य प्रदान करने वाली एक शक्ति होती है जो उसे स्वस्थ और निरोग रखती है। वही प्राकृतिक शक्ति आवश्यकता पड़ने पर शरीर को स्वच्छ और निरोग बनाने के लिए रोगों की उत्पत्ति भी करती है तथा उन रोगों को नष्ट भी करती है। उसी शक्ति को सभी लोग अलग-अलग नामों जैसे शक्ति, परमात्मा, अंतरात्मा तथा कोई `राम` कहकर पुकारता है। इस प्रकार यदि हम प्राकृतिक चिकित्सा को ईश्वरीय चिकित्सा कहें तो उचित ही होगा क्योंकि इस चिकित्सा में हमें अपना काम ईश्वर के ऊपर छोड़ देना चाहिए जो वही और केवल वही कर सकता हैं।
1. पृथ्वी- पृथ्वी तत्व से शरीर के सभी जैविक बल निष्क्रिय और चेतनाशून्य हो जाते हैं। अत: उन सबको सक्रिय रखने के लिए अधिक शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। अधिक वजन वाले, मांसल, चर्बीयुक्त व्यक्ति इस तत्व के उदाहरण हैं। ऐसे लोग निश्चित रहते हैं तथा उनमें कुछ भी प्राप्त करने की उत्सुकता नहीं होती है। ऐसे व्यक्ति जीवन में संघर्ष करने से घबराते हैं। इससे उनका शरीर आलसी और जीवन सुस्त (मन्द) हो जाता है। पृथ्वी तत्व जब तक हमारे शरीर में त्रुटिपूर्ण स्थिति में रहता है तो हम स्वार्थी और लोभी बनते जाते हैं। पृथ्वी तत्त्व एक तटस्थ तत्त्व होता है।
2. जल : जल तत्व हमारे शरीर और जीवन के प्रवाह को सुरक्षित बनाये रखता है। जल की प्रकृति शीतल होती है। हमारे शरीर में लगभग 70 प्रतिशत पानी होता है अत: शरीर के तापमान और रक्त संचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह एक ऋण तत्व होता है।
3. अग्नि : अग्नि तत्त्व हमारे शरीर में अग्नि को उत्पन्न करके शरीर में उपस्थिति जल को उष्णता प्रदान करता है। अग्नि तत्व आंखों की दृष्टि को नियंत्रण में रखता है, तथा आहार के सेवन करने के बाद यही अग्नि तत्त्व हमारे भोजन का पाचन करके ऊर्जा और शक्ति प्रदान करता है। अग्नि भूख और प्यास की वृद्धि करती है। यह स्नायु की स्थिति को उसकी स्वाभाविक स्थिति में बनाये रखती है और चेहरे को आकर्षक बनाती है। यह हमारे विचारों को शुद्ध बनाती है तथा मस्तिष्क के विकारों को नष्ट करके उसे शक्तिशाली बनाती है। अग्नि तत्व हमारे शरीर में प्रतिरोधक क्षमता को उत्पन्न करती है जो हमें रोगों से बचाती है। अग्नि तत्व हमारे शरीर के लिए बहुत अधिक उपयोगी होता है। शरीर में अग्नि तत्व की कमी होने पर एनीमिया, पीलिया, पाचन आदि से सम्बन्धित परेशानियां उत्पन्न होती हैं। हमारे शरीर में अग्नि तत्व का अभाव होने से बेहोशी, विभिन्न प्रकार के मानसिक विकार, व्यर्थ की उलझनें और तनाव, आंखों की कमजोरी, त्वचा सम्बन्धी रोग, मोतियाबिंद तथा पेट की गैस आदि विकार उत्पन्न होते हैं।
इसलिए पूर्वीय चिकित्सा पद्धति में अग्नि तत्व की सुरक्षा व नियंत्रण को विशेष महत्व दिया जाता है। अग्नि तत्व धन तत्व होता है।
4. वायु : वायु तत्व ही जीवन होता है। यह एक शक्ति होती है और शरीर के प्रत्येक भाग का संचालन करती है। यह हृदय की क्रिया और रक्त के संचार को नियंत्रित रखती है और शारीरिक संतुलन को बनाये रखती है। यह श्वसन और मल-मूत्र की गति में मदद करती है। यह आवाज उत्पन्न करती है। यह मानसिक शक्ति और शारीरिक क्षमता को बढ़ाती है। यह अपने आप में गति करने में असमर्थ पित्तरस और कफ को यह गति देती है। यह धन तत्व है।
5. आकाश : सृष्टि के निर्माण से पहले जब सम्पूर्ण जीवों के परमात्मा के अलावा कहीं पर कुछ भी नहीं था। सृष्टि के आरम्भ में सर्वप्रथम ईश्वर की चेतनाशक्ति की प्रेरणा से शब्द तन्मात्र उत्पन्न हुआ, जिससे आत्मा को बोध कराने वाले `आकाश` का जन्म हुआ। अन्य चारों तत्वों को अवकाश देना, सबके भीतर और बाहर रहना तथा प्राण, इन्द्रिय, और मन का आश्रय होना- ये सभी आकाश तत्व के कार्य, रूप और लक्षण होते हैं। वर्तमान समय में आकाश को स्पेस कहा जाता है।
आक्सीजन को सांस के द्वारा हम अपने शरीर के अन्दर लेते हैं। इसलिए शरीर में पोल (खाली स्थान) भी होना चाहिए। यदि यह सांस लेने की क्रिया बंद हो जाए और इसमें किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न हो जाए तो इससे हमारे शरीर को बहुत अधिक कष्ट होता है। जिसके परिणामस्वरूप हार्ट अटैक, लकवा, मूर्छा आदि विकार होते हैं। यह ऋण तत्व होता है।
प्रकृति के प्रकार :
हमारे शरीर में तत्वों का अलग-अलग संयोजन : हमारे शरीर में व्याप्त पांचों तत्त्वों के भिन्न-भिन्न संयोजन आपस में मिलकर शरीर की प्रकृति निश्चित करते हैं। यदि ये मूल तत्व शरीर में उचित मात्रा में बने रहते हैं तो हमारे शरीर की सभी प्रकार की क्रियाएं सामान्य रूप से अपना कार्य करती रहती हैं और हमारा शरीर भी स्वस्थ बना रहता है। परन्तु वंशानुगत लक्षण, आहार तथा जीवन व्यवहार आदि के कारण एक या दो तत्वों की शरीर में अधिकता या कमी होने से हमारे शरीर की सभी क्रियाएं सामान्य रूप से नहीं हो पाती हैं जिसके परिणामस्वरूप हमारे शरीर में विभिन्न विकार हो जाते हैं। अनेक प्रकार के संयोजनों में तीन प्रकार के संयोजन प्रमुख होते हैं। ये संयोजन हमारे शरीर का प्रकार तथा शरीर की प्रकृति को निश्चित करते हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति ``आयुर्वेद´´ के अनुसार लोगों को तीन प्रकारों में विभक्त किया गया है।
1. कफ प्रकृति : ऐसा संयोजन जिसमें पृथ्वी और जल तत्व अधिक होता है।
2. पित्त प्रकृति : पित्त प्रकृति ऐसा संयोजन है जिसमें कि अग्नि तत्व और वायु तत्व अधिक होता है।
3. वात प्रकृति : वात प्रकृति ऐसा संयोजन होता है जिसमें वायु तत्व की मात्रा अधिक होती है।
आयुर्वेद चिकित्सा सिद्धांत के अनुसार रोगी की चिकित्सा करते समय उसके शरीर की प्रकृति को ध्यान में रखना चाहिए। कफ प्रकृति वाले लोगों के लिए दूध प्रतिकूल पदार्थ होता है। अत: जिन्हें सांस लेने की बीमारी, दमा, अपच आदि हो उन्हें दूध का सेवन नहीं करना चाहिए। पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को अधिक मिर्च और मसाले वाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि किसी एक वस्तु का सेवन एक व्यक्ति के लिए लाभकारी होता है तो दूसरे व्यक्ति के लिए हानिकारक भी हो सकता है।
कफ प्रकृति-
कफ प्रकृति का आशय होता है कि अत्यधिक पृथ्वी और जल तत्व वाला संयोजन। यह हमारे शरीर के अधिकांश अवयवों में व्याप्त होता है। मीठे आहार और पेय का ठीक से पाचन होने पर सेलाइन में बदल जाता है। जिसके कारण हमारे शरीर का रक्त आल्कली बनता है। यह शरीर के तत्वों को बल प्रदान करता है। जीवन शक्ति में वृद्धि करता है और सुख बढ़ाने में योगदान देता है। यह हमारे शरीर के जोड़ों वाले स्थानों में तेल की आपूर्ति करता है और जोड़ों के दर्द को भी समाप्त करता है। परन्तु इसके लिए हमारे शरीर में अग्नि तत्व का होना आवश्यक होता है।
शारीरिक व्यायाम की कमी, आवश्यकता से अधिक आहार का सेवन, भोजन-समय के उपरांत भी कुछ न कुछ खाते रहना, मिठाइयों और तले हुए पदार्थों का अधिक मात्रा में सेवन करने से हमारे शरीर में पाचन शक्ति प्रभावित होती है। इसके परिणामस्वरूप शरीर में गर्मी उत्पन्न नहीं होती है। इससे शरीर में पानी की मात्रा बढ़ती है तथा गर्मी की मात्रा घटती है जिसके कारण शरीर में सुस्ती, आलस्य, भारीपन, चर्बी की वृद्धि, सर्दी, सांस लेने की परेशानी आदि होती है और अंत में दमा, आर्थराइटिस (हडि्डयों का रोग) और वात आदि रोग हो सकते हैं।
उपर्युक्त रोगों को नष्ट करने के लिए कफ प्रकृति वाले लोगों को अरुचिकर भोजन, ठंडे पेय पदार्थों और परेशानी उत्पन्न करने भोजन को कम कर देना चाहिए तथा भूख लगने पर हल्के आहार का सेवन करना चाहिए। इस दौरान अधिक सेक्स क्रिया और अधिक नींद का भी त्याग करना चाहिए। ऐसे रोगियों के लिए दूध का सेवन भी हानिकारक होता है। इससे बचने के लिए उन्हें प्रतिदिन व्यायाम करना चाहिए।
पित्त प्रकृति :
पित्त प्रकृति अत्यधिक अग्नि तत्व और वायु तत्व वाला संयोजन होता है। अधिक गर्मी हमारे मस्तिष्क की कार्यशक्ति, आंख और लीवर के लिए हानिकारक होती है। पेट की गैस, आंतरिक गर्मी से होनी वाली सर्दी, त्वचा सम्बंधी विकार, नपुंसकता, चिड़चिड़ा स्वभाव, बालों का झड़ना आदि विभिन्न प्रकार के रोग होते हैं। इससे बचने के लिए हमें अधिक चिंता, आतुरता, तले भुने खाद्य-पदार्थों का सेवन, सूर्य के धूप में अधिक समय तक कार्य करना तथा एन्टोबायोटिक के अधिक उपयोग से बचना चाहिए। अत: इस प्रकार की आदतों से जहां तक हो सके हमें बचना चाहिए। पित्त प्रकृति वाले व्यक्ति को निम्न सावधानियां रखनी चाहिए।
पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को एंड्रिनल और स्वाद बिंदु को नियंत्रित रखना चाहिए।
पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को प्रारम्भ में 10-12 दिन तक प्रतिदिन तथा उसके बाद सप्ताह में कम से कम एक या दो बार के जुलाब के तौर पर हरीतकी का बारीक चूर्ण और खांड को मिलाकर सेवन करना चाहिए।
पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को सुबह उठने के साथ ही सबसे पहले मीठे फलों का सेवन करना चाहिए।
भोजन सेवन करने के बाद पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को फल और मिठाई का सेवन करना चाहिए।
पित्त प्रकृति वाले व्यक्तियों को प्रतिदिन कुछ न कुछ व्यायाम अवश्य ही करना चाहिए।
वात प्रकृति-
जिसमें वायु तत्व की मात्रा अत्यधिक हो ऐसे संयोजन के परिणामस्वरूप वात प्रकृति का निर्माण होता है। इस प्रकार के लोगों में आलसीपन अधिक होता है। दिन में स्वप्न देखना, अधिक नींद लेना, तथा गैस के विकार भी होते हैं। हमारे शरीर में वात तत्व के अंसतुलन से शरीर में बेहोशी भी हो जाती है। अत्यधिक तले हुए आहार और बेसन से बने हुए पदार्थों का सेवन करने से विभिन्न प्रकार की परेशानियां उत्पन्न होती हैं। वात प्रकृति के लोगों को प्रतिकूल प्रवृत्ति के आहार, कब्ज तथा दिन में नींद लेने से बचना चाहिए तथा मेहनत युक्त व्यायाम करना चाहिए ताकि हृदय मजबूत बने और रक्त का संचार भी ठीक प्रकार से होता रहे।
सभी व्यक्तियों को अपनी शरीर की प्रकृति तथा शरीर के बारे में जानकारी होनी चाहिए। इसी के अनुसार परेशानी उत्पन्न करने वाली वस्तुओं से दूर रहना चाहिए। ऐसे ही आहार का सेवन करना चाहिए जो हमारे शरीर के लिए अनुकूल होते हैं।
सभी व्यक्तियों की प्रकृति अलग-अलग होती है तथा सभी की शारीरिक संरचना, स्वास्थ्य और परेशानियां अलग-अलग होती हैं परन्तु आहार में उचित परिवर्तन करके अपने स्वास्थ्य की रक्षा की जा सकती है। हमारे मस्तिष्क का निर्माण-मेरुजल रक्त से बनता है। इसलिए रक्त के उचित संयोजन के अभाव में मस्तिष्क-मेरुजल में भी असंतुलन होता है जैसे, आहार में नमक की मात्रा अधिक रहने पर मस्तिष्क-मेरुजल में भी उसकी मात्रा अधिक रहती है जिसके परिणामस्वरूप ब्लडप्रेशर और डायबिटीज होता है।
हमारे शरीर पर पड़ने वाले जलवायु का भी विशेष महत्व होता है जैसे शरीर के लिए छाछ (मट्ठा) आवश्यक पदार्थ होता है। परन्तु बरसात के मौसम में यह लाभकारी नहीं होता है। बरसात के मौसम में छाछ में कालीमिर्च और अदरक का रस मिलाकर सेवन करना चाहिए।
प्रकृति सभी मौसम और सभी प्रदेशों में पाये जाने जीवधारियों के लिए उचित फल तथा सब्जियां आदि उत्पन्न करती है। इसलिए हमें सेवन हेतु स्थानीय तथा मौसमी फल और सब्जियों को लेना चाहिए। असम और नीलगिरी में भारी वर्षा होती है तथा चाय का अधिक उत्पादन भी वहीं होता है। इसलिए यहां की नमी वाली जलवायु सेहत के लिए उत्तम होती है।
रामनाम से प्राकृतिक चिकित्सा का संबन्ध
वैसे देखा जाए तो राम, अल्लाह, नानक तथा गाड सब का अर्थ समान ही होता हैं। सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी ईश्वर तो एक ही होता है। उसके नाम कई होते हैं लेकिन सभी व्यक्तियों को ईश्वर का जो नाम अच्छा लगता है वह उसी नाम से ईश्वर को याद करता हैं।
जब हम किसी व्यक्ति का उपचार प्राकृतिक चिकित्सा से कर रहे होते हैं तो हमें उसका उपचार केवल उसके शारीरिक क्रिया के द्वारा ही नहीं करना चाहिए बल्कि उसके मन और आत्मा का उपचार करना चाहिए। जब तक रोगी व्यक्ति का मन, आत्मा तथा शरीर निरोग नहीं होगा तब तक रोगी व्यक्ति का रोग भी ठीक नहीं होगा जिस व्यक्ति का मन, आत्मा तथा शरीर तीनों निरोग होगा वही व्यक्ति निरोगी हो सकेगा। प्राकृतिक चिकित्सा के उपचार में सबसे समर्थ उपचार रामनाम है। ईश्वर की स्तुति और सदाचार का हर तरह के रोगों को रोकने का अच्छे से अच्छा और सस्ते से सस्ता उपचार है।
बहुत सारे आदमियों द्वारा सच्चे दिल से एक ताल और एक लय के साथ गाई जाने वाली रामधुन की ताकत फौजी ताकत के दिखावे से बिल्कुल अलग और कई गुना बढ़ी-चढ़ी होती है।
कोई भी मनुष्य यदि राम नाम का जाप सच्चे दिल से करता है तथा वह हर एक बुरे ख्याल को तुरन्त दूर कर देता है तो उसे बहुत ज्यादा शांति मिलती है जिसके फलस्वरूप उसके कई सारे रोग तो अपने आप ही ठीक हो जाते हैं। इसलिए देखा जाए तो जब मनुष्य के मन से बुरा ख्याल मिट जाए तो उसका कोई भी हर्ष बुरा नहीं होता है। यदि मन कमजोर है, तो बाहर की सब सहायता बेकार है। गीता में सच ही कहा गया है कि मनुष्य का मन ही उसे बनाता है और बिगाड़ता भी है। अर्थात मनुष्य का मन ही सब कुछ है, वही स्वर्ग को नरक और नरक को स्वर्ग बनाता है।
जब तक मनुष्य अपने अन्दर और बाहर की सच्चाई, ईमानदारी और पवित्रता के गुणों को नहीं बढ़ाता, तब तक उसके दिल से रामनाम नहीं निकल सकता है।
रामनाम या किसी भी रुप में हृदय से ईश्वर का नाम लेना एक बड़ी शक्ति का सहारा लेना है, वह शक्ति जो कर सकती है, सो दूसरी कोई शक्ति नहीं कर सकती, उससे सब दर्द दूर होते हैं।
जब कभी कोई रोग तुम पर हावी होने लगे तो उस समय तुम घुटनों के बल झुककर भगवान से मदद की प्रार्थना सच्चे दिल से करो, तुम्हारे मन को बहुत शांति मिलेगी तथा इसके साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार भी करें, जिसके फलस्वरूप रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है अत: कहा जा सकता है कि रामनाम एक औषधि के सामान कार्य करता है।
यदि कोई मनुष्य अपने अन्दर ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करता है तो उसके कई सारे रोग तो अपने आप ही दूर हो जाते हैं। इस प्रकार के व्यक्तियों के जीवन में आने वाली सारी परेशानियां अपने आप ही दूर हो जाती हैं। लेकिन व्यक्तियों को केवल ईश्वर के सच्चे दिल से प्रार्थना करने की इच्छा से ही सब कुछ नहीं होता है बल्कि उसे दिल से चाहने से ही सब कुछ हो सकता है। ईश्वर को सच्चे दिल से चाहने के लिए केवल अभ्यास करने की जरूरत होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि सभी व्यक्तियों को प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार कराने के साथ-साथ उसे चिकित्सा में विश्वास रखने तथा ईश्वर में विश्वास रखने तथा संयम बनाये रखने की जरूरत है तभी रोग जड़ से ठीक हो सकता है।
No comments:
Post a Comment