Saturday, 10 September 2016

क्षय रोग (टी.बी.) का उपचार

टी.बी. का रोग शुरू-शुरू में तो साधारण ही लगता है। मगर इसका उपचार समय पर नहीं कराया जाता है तो यह एक बड़ी बीमारी का रूप ले लेता है। इस बीमारी से ग्रस्त रोगी का शरीर धीरे-धीरे कमजोर हो जाता है क्योकि यह रोग व्यक्ति के शरीर से धातुओं और बल को खत्म कर देता है। इस बीमारी मे रोगी के शरीर में छोटे-छोटे कीटाणु पैदा हो जाते हैं जो रोगी के खांसने, थूकने, छींकने और पूरा मुंह खोलकर बोलने से दूसरे लोगों में भी जा सकता है जिससें यह रोग उन्हे भी हो सकता है। टी.बी. एक ऐसा रोग है जो सिर से लेकर पांव तक के किसी भी अंग में हो सकता है। चाहे वो दिमाग की टी.बी. हो, गले की टी.बी हो, फेफड़ों की टी.बी. हो या फिर हडि्डयों की हो। अंग्रेजी में इसका पूरा नाम ट्यूबरक्लोसिस तथा थाइसिस होता है।
टी.बी. रोग तीन अवस्थाओं में पैदा होता है।

पहली अवस्था :
          टी.बी. रोग की पहली अवस्था मे पसलियों में दर्द, हाथ-पांव में अड़कन, पूरे शरीर में हल्की सी टूटन और बुखार बना रहता है। ऐसे में टी.बी. रोग का अहसास या उसका ठीक तरह से होना पता नहीं लगाया जा सकता।
दूसरी अवस्था :
          टी.बी. रोग की दूसरी अवस्था में रोगी की आवाज मोटी, गैस से पेट में दर्द, कमरदर्द, बुखार, पतला पित्त आदि लक्षण प्रकट होते हैं। आरम्भ में तो इनका उपचार सहज रूप से अथवा सामान्य औषधि आदि से हो जाता है मगर किसी कारणवश रोग में वृद्धि हो जाती है, तो कठिनाई उपस्थित होती है। किसी-किसी रोगी को अन्य उपसर्गों की प्राप्ति हो जाती है, तब उन उपसर्गों के शमन का उपाय भी आवश्यक होता है।
तीसरी अवस्था :
          टी.बी. रोग की तीसरी अवस्था में रोगी को तेज बुखार होता है और तेज खांसी होती है जो रोगी को बहुत ही परेशान करती है। कफ के साथ, खांसी अथवा सामान्य खांसी में भी खून आ जाने के कारण आवाज भी मोटी होती है।

कारण :
  टी.बी. रोग होने का कारण जीवाणु यक्ष्मा बैसीलस (माइकोबैक्टीरियम ट्युबरकुलोसिस) होता है। यह कीटाणु उस धूल व मिट्टी में भी पायें जाते हैं जिसमें टी.बी के रोगी ने थूका हो या लार व कुल्ला किया पानी डाला हो। बीमार गाय, भैंस व बकरी के दूध को भी पीने से टी.बी. के कीटाणु व्यक्ति के शरीर में घुस जाते है। कई बार यह रोग वंशानुगत हो जाता हैं। ज्यादा वसायुक्त भोजन करना, ज्यादा मेहनत करना, धूम्रपान, शराब पीने तथा अधिक मैथुन से भी यह रोग हो जाता है। वैसे तो यह किसी भी उम्र में हो सकता है, लेकिन बूढ़े व्यक्तियों मे इसके होने की संभावना अधिक होती है

लक्षण :
टी.बी. रोग की शुरुआत में रोगी के शरीर में कमजोरी तथा थकावट सी महसूस होती है। रोगी के कंधे, पसलियों में दर्द होता है, हाथ पैरो में जलन और बुखार बना रहता है, धीरे-धीरे मुंह सूखता जाता है। रोगी का काम करने में मन नहीं लगता है। रोगी के मुंह से थूक व लार भी ज्यादा गिरता है। बार-बार सिर दर्द और जुकाम तथा छोटी-मोटी अन्य बीमारियां शरीर में पैदा हो जाती है। रोगी की सांसे जल्दी-जल्दी चलने लगती हैं। नाड़ी की गति तेज और ढीली पड़ जाती है। कफ के साथ खून आने की शिकायत भी हो जाती है। शरीर की गर्मी कम होने लगती है और कमजोरी काफी बढ़ जाती है। ठंड़ हो या गर्मी रात को सोते समय पसीने का ज्यादा आना, दोपहर के बाद बुखार 99 से 103 डिग्री तक होना, खाना खाने में मन न लगना, खांसी के संग बलगम और खून की छींटे आना भी टी.बी. रोग के लक्षण है। शरीर कितना भी बलवान लगे अगर उसे टी.बी. है तो उसकी पसली की हड्डी नीचे जरूर घुस जाती है।
फेफड़ों की टी.बी. के लक्षण :

 इसकी शुरूआत मन्द गति से होती है। कभी-कभी यह बीमारी तेजी से बढती है। इस स्थिति को विल्गत टी.बी. कहते हैं। ज्यादातर स्थितियों मे शुरू में यह सामान्य और अविशिष्ट होते हैं जिनके आधार पर रोग को पहचान पाना कठिन होता है, लेकिन जब कभी ऐसी किसी स्थिति में अकस्मात बलगम से खून आने लगता है या फेफड़ों में सूजन हो जाती है। तब इसकी पहचान आसानी से की जा सकती है।
आंतों की टी.बी. के लक्षण :-
           इस रोग के लक्षण 15 या 10 दिन के अन्दर में देखे जा सकते हैं। जिसमें रोगी का मल ढीला होकर आना, पेट में कब्ज, गुड़गुड़ाहट, भोजन का पूर्ण रूप से ना पचना, कमरदर्द, सांस लेने में कठिनाई और थकावट आदि लक्षण पाये जाते हैं।
विभिन्न औषधियों से उपचार-

 पेठा :
•पेठे का सेवन टी.बी. रोग में अत्यन्त लाभकारी होता है। पेठे का रस शहद में मिलाकर दिन में 3-4 बार लेना चाहियें। बाजार में बिकने वाली पेठे की मिठाई भी टी.बी. रोग के लिए लाभदायक होती है।
•पेठे का रस पीने से टी.बी. रोग से पीड़ित रोगियों के फेफड़ों की जलन में आराम होता है।

 शिलाजीत : शिलाजीत टी.बी. को दूर करने में बहुत उपयोगी है। इसका सेवन शहद के साथ, दूध के साथ अथवा औषधि योगों के साथ किया जा सकता है।

 अड़ूसा :
•अड़ूसा (वासा) टी.बी. रोग में बहुत लाभ करता है। अड़ूसा किसी भी रूप में नियमित सेवन करने वाले को खांसी से छुटकारा मिलता है। इसको खाने से कफ में खून नहीं आता, बुखार में भी आराम मिलता है। इसका रस और भी लाभकारी होता है। अड़ूसे के रस में शहद मिलाकर दिन में 2-3 बार लेना चाहिए।
•अड़ूसे के 3 लीटर रस में 320 ग्राम मिश्री मिलाकर धीमी आंच पर पकायें। जब यह गाढ़ा होने को हो, तब उसमें 80 ग्राम छोटी पीपल का चूर्ण मिलायें। जब यह ठीक प्रकार से चाटने योग्य पक जाये तब इसमें गाय का 160 ग्राम घी मिलाकर पर्याप्त चलायें तथा ठंड़ा होने पर उसमें 320 ग्राम शहद मिलायें। यह काढ़ा 5 ग्राम से 10 ग्राम तक टी.बी. के रोगी को दे सकते हैं। यह खांसी, सांस के रोग, कमर दर्द, हृदय का दर्द, रक्तपित्त (खूनी पित्त) और बुखार को भी दूर करता है।

 गाय का पेशाब : काली स्वस्थ गाय का मूत्र प्रतिदिन 10 बार 2-2 ग्राम की मात्रा में पीने से 21 दिन में ही टी.बी. रोग मिट जाता है।
शहद : मक्खन, शहद और शक्कर को एकसाथ मिलाकर खाने से क्षय-रोग (टी.बी.) का रोगी ठीक हो जाता है।

 गधी का दूध : सुबह-शाम लगभग 100-100 मिलीलीटर गधी का दूध पीने से टी.बी. रोग मिट जाता है।
 कोयले की राख : यदि टी.बी. के रोगी के मुंह से खून आता हो तो आधा ग्राम पत्थर के कोयले की सफेद राख को मक्खन-मलाई या दूध के साथ खाने से खून आना बन्द हो जाता है।

आक : आक की कली पहले दिन एक निगलें, दूसरे दिन 2 तथा तीसरे दिन 3 इसके बाद प्रतिदिन 15-20 दिन तक 3-3 कली खाते रहे तो टी.बी. रोग नष्ट हो जाता है।

 पीपल :

500 मिलीलीटर बकरी के दूध में 500 मिलीलीटर पानी को मिलाकर इसमें 3 पीपल डालकर उबालें। पानी जल जाने पर पीपल निकालकर खा लें। ऊपर से कम गर्म दूध पी लें। 10 दिन तक 1-1 पीपल बढ़ाकर दूध में डालें तथा ग्यारहवें दिन से 1-1 पीपल घटाते जाए। 3 पीपल पर लाकर खत्म कर बन्द कर दें। इस प्रयोग को नियमित रूप से करने से टी.बी. रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
पीपल की लाख का चूर्ण बनाकर, घी और शहद में मिलाकर रोगी को पिलाने से टी.बी का रोग ठीक हो जाता है।

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