खुले शरीर का अर्थ है- स्वास्थ्य, ऊर्जा और शक्ति!
सूर्य धूप से बचने का अर्थ है, कमजोर शरीर?
गोरे
रंग के लिए धुप से बचने का मतलब जोड़ों और मांसपेशियों में दर्द और बीमार
कमजोर हड्डियों वाला शरीर प्राप्त करना, पर जब शरीर को खड़े रखने वाली
हड्डियाँ ही कमजोर होने लगेंगीं तो कोई कितने दिन स्वस्थ खड़ा रह पायेगा|
क्या इस मूल्य पर गोरा रंग पाने के लिए कोशिश ठीक होगी|
यहाँ हमारा मतलब शरीर के अंगों का कामुक प्रदर्शन भी नहीं है|
अक्सर हम आधुनिक लोग इस बात को गंभीरता से नहीं लेते, कुछ तो इसे असभ्यता (Vulgar) कह कर नकारते भी है|
आधुनिक समाज के लोगों की तुलना में ग्रामीण
विशेषकर
आदिवासी अपने शरीर का अधिक भाग खुला रखते हें, उन्हें कभी भी शरीर के
कामुक प्रदर्शन श्रेणी में नहीं माना जाता| देख लें वे तुलनात्मक मजबूत
हड्डी और शरीर वाले अधिक बलिष्ट होते हें, कारण केवल कठोर जीवन अकेला नहीं
अनायास मिलने वाला सूर्य का प्रकाश भी है|
बेचेनी, थकान, रोग, आदि का एक कारण भी यह है!
नव
जवानों में, विशेषकर शहरी क्षेत्रों में रहने वाली युवतियों में जोड़ो,
हड्डियों, मांस पेशियों, कमर और शरीर के भागों पिंडली और जांघों में दर्द
होना, मन में बेचेनी, तुनुक मिजाजी पैदा होना, थकान, सुस्ती, चाहे जब
सिरदर्द होते रहना, और बाल अधिक झड़ना, जल्दी सफ़ेद होना, हड्डियाँ से चट चट
की आवाज जैसे लक्षण की शिकायत लेकर चिकित्सकों के पास आते हैं, और इन
शिकायतों के आधार पर सामान्यत इलाज होने पर भी उन्हें अक्सर लाभ नहीं
मिलता|
रंग गोरा रखने का लोभ और जोखिम?
चाहे
गर्मी हो सर्दी हो या बरसात, बारहों माह शहरी क्षेत्रों में एक्सपोजर
(केवल रंग को गोरा बनाये रखने का लोभ) से बचने के लिए नव जवान विशेषकर नव
युवतियां चेहरे सहित पूरे शरीर को ढक कर ही घर से बाहर निकलते हें, केवल
शरीर को कपडे से ही नहीं ढकते वे विभिन्न सन आदि क्रीमों की भी पर्त चड़ा
लिया करते हें| एसा करते हुए वे कितनी जोखिम वे उठाते है शायद उनको नहीं
मालुम|
क्या कारण है इन तकलीफों का?
वास्तव
में इस प्रकार सन क्रीमो लगाने और चेहरा सहित शरीर को ढककर रखने से सूर्य
के प्रकाश को त्वचा तक पहुँचने से रोक दिया जाता है, और उपरोक्त समस्याओं
का मूल कारण भी यही है|
केवल अच्छा आहार लेना ही पर्याप्त नहीं!
अच्छे
से अच्छा और संतुलित आहार खाने के बाद भी कुछ आवश्यक तत्व जैसे विटामिन डी
को बनाने के लिए सूर्य का प्रकाश बहुत जरुरी होता है, इसके बिना विटामिन
डी मिलता ही नहीं, और इसकी कमी से उपरोक्त कष्ट मिलने लगते हें|
जिस
तरह से कोई भी पोधा बिना धुप के छाया में नहीं पनपता रोग ग्रस्त होकर नष्ट
हो जाता है उसी प्रकार कोई भी प्राणी बिना धूप के कभी भी पूर्ण स्वस्थ्य
नहीं रह सकता|
हम जो भी भोजन आदि का सेवन करते हें,
वह शरीर में विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरकर शरीर के लिए विभिन्न आवश्यक
पदार्थ बनाता है, साँस से मिलने वाली ओक्सिजन, पानी और उसमें मिलने वाले
खनिज, के साथ ही सूर्य का प्रकाश भी एक अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका का
निर्वाह करता है|
हम कई प्रकार के खाद्य जो खाने के
साथ लेतें है उनसे शरीर के लिए आवश्यक तत्व बनता है, इन्हें विटामिन्स कहा
जाता है| सामान्यत: ये विटामिन शरीर में ही खाद्यों को विश्लेषित कर उचित
मात्र मैं तैयार कर आवश्यक अंगों तक पहुंचा दिए जाते हें| इनमें एक विटामिन
डी भी होता है, जो आवश्यक मात्र में शरीर की प्राकृतिक क्रिया द्वारा
सूर्य के प्रकाश के त्वचा पर पढने से ही बनता है| प्रकाश या धूप न मिलने
पर नहीं बनता|
यह विटामिन ड़ी धातु पोषण क्रम में अस्थि निर्माण और उन्हें सक्षम बनाये रखने के लिए एक अत्यंत आवश्यक तत्व होता है|
सूर्य
के प्रकाश धुप को शरीर पर न पड़ने देने से त्वचा तो गोर वर्ण रहती है, पर
हड्डियाँ कमजोर होने लगतीं है| जहाँ त्वचा के रंग का प्रभाव एक दिन में
दीखता वहीं विटामिन डी की कमी का पता अक्सर देरी सी ही चलता है और फिर इतनी
अधिक देरी हो जाती है की उन हड्डियों को पुन: प्राक्रतिक बना पाना प्राय:
असम्भव हो जाता है|
विटामिन डी की कमी से या अन्य शब्दों में हम यह भी कह सकते हें की धातु परिपोषण क्रम भंग होने पर कई समस्याओं का सामना करना पढता है|
हड्डीयों और जोड़ों के रोग-
सबसे
पहिला असर होता है की हड्डियों कमजोर (ऑस्टियोमलेशिया) और खोखली
(ऑस्टियोपोरोसिस) होती है, बार बार अस्थिभंग (फ्रेक्चर) की संभावना बड जाती
है|
मांस पेशी की कमजोरी-
मांसपेशी
(मसल्स) भी कमजोर होते चले जाते हें, इससे उनमें दर्द सूजन आदि अक्सर
होने लगता है| कितनी भी दवा खाई जाये विटमिन डी की कमी पूर्ती नहीं हो
पाती|
इम्युनिटी की कमी-
इससे
शरीर की प्रति रक्षा प्रणाली कमजोर होने से इम्युनिटी कम होति है, और बार
बार सर्दी जुकाम से लेकर कई बड़े बड़े रोग होने लगते हें|
प्रजनन क्षमता का नष्ट होना-
स्त्री पुरुषों की प्रजनन क्षमता कम होने से इनफर्टिलिटी बढ़ती है| युवतियों में माहवारी (पीरियड्स) अनियमित होने लगती है|
नपुंसकता का खतरा-
युवको में वीर्य सम्बन्धी दोष और नपुंसकता बडती है|
आयु बड़ने के साथ साथ कई अन्य रोग होने लगते हें|
गोरा कमजोर बीमार शरीर किस काम का!
इन
समस्त संभावित समस्यायों से बचने के लिए आवश्यक है, की की केवल त्वचा को
गोरा बनाये रखने के लिए भविष्य में होने वाले इन खतरों से सावधान रहा जाये,
प्रतिदिन नियमित धुप प्रकाश में शरीर को एक्सपोजर किया जाते रहना चाहिए|
धूप से गहरा हुआ रंग तो फिर कुछ ही दिन में फिर गोरा हो सकता है, विटामिन
डी की लगातार अभाव जीवन भर के लिए संकट पैदा कर देगा, और फिर कमजोर बीमार
शरीर का रंग गोरा हो तो भी उसका क्या लाभ?
यदि किसी
को उपरोक्त कष्ट होने लगे हें तो अभी भी देरी नहीं हुई है| लेकिन यदि किसी
युवक युवती को उपरोक्त कष्ट हो चुका है, तो उसकी चिकित्सा विटामिन डी की
कमी का पता कर उसकी पूर्ति कर की जा सकती है|
विटामिन डी की कमी का पता कसे चले?
वर्तमान
में उपलब्ध वैज्ञानिक संसाधनों द्वारा जाँच कर विटामिन डी की कमी प्रतिशत
का निर्णयकर चिकित्सा समयावधि निश्चित की जा सकती है|
इसके
लिये D (25-OHD) [25-hydroxy vitamin D test-25-हाइड्रॉक्सी विटामिन डी
जाँच] इसे विटामिन डी डिफिसिएंशी टेस्ट भी कहते हैं, कराई जाती है|
इस
जाँच में चार से आठ घंटे तक बिना कुछ भी खाएं खून का सेम्पल दिया जाता है|
परिणाम रोगी की आयु, लिंग, और जाँच के तरीके पर पर निर्भर होता है|
परिणाम से ज्ञात होता है की –
1 - रोगी संतुलित आहार ले रहा है या नहीं|
2- विटामिन डी पचाया जा रहा है या नहीं|
3- विटामिन डी बनाने के लिए रोगी पर्याप्त सूर्य प्रकाश (धूप) में रहता है या नहीं|
एक
स्वस्थ्य व्यक्ति का विटामिन डी का लेवल 20 से 50 ng/mL या इससे अधिक होना
चाहिए| 50 से कम होने पर भी कम मानते हुए सूर्य प्रकाश (सन एक्सपोजर)
बढ़ाना चाहिए|
अधिकतम 800-900 ng/ml (नैनोग्राम/मिली)
से अधिक होना किडनी के लिए हानिकारक हो सकता है, अत यदि चिकित्सा में
क्रत्रिम वीटा डी दिया जा रहा है तो अधिक सावधान रहना चाहिए| यह समझना
जरुरी है की धुप या प्रकाश से विटा डी कभी अधिक नहीं होता| आयुर्वेदिक ओषधि
से मिला वीटा डी भी प्राकृतिक होने से कभी भी अधिक नहीं होता|
सामान्यत:
ऊपर लिखे थोड़े भी लक्षण मिलते हों शरीर में दर्द नहीं भी हो और सामान्य
चिकित्सा से लाभ न हो तो भी यह टेस्ट कराने से वस्तु स्थिति का पता चल जाता
है, और तदनुसार चिकित्सा की जा सकती है| अगर लेवल काफी कम निकलता है, तो
ओषधि सेवन कर छह महीने या साल भर बाद पुन: जाँच कराई जा सकती है|
आयुर्वेदिक चिकित्सा
आयुर्वेदिक
चिकित्सा में इस प्रकार के लक्षणों के लिए जिन ओषधियों का प्रयोग किया
जाता है उनमें से अधिकांश से विटामिन डी की पूर्ति होती है, यदि अधिक कमी
नहीं है तो रोगी रोग मुक्त भी हो जाता है| परन्तु सूर्य का प्रकाश या धुप
फिर भी चाहिए ही|
यदि अधिक कमी है तो अधिक समय तक आयुर्वेदिक ओषधि खाने से भी कोई हानि नहीं होती|
आयुर्वेदिक
चिकित्सा में उपरोक्त लक्षण मिलने पर सर्वांग स्नेहन, आताप स्वेद, और
विटामिन डी बड़ने वालि ओषधियों का प्रयोग किया जाता है|
अक्सर
आधुनिक चिकित्सा से निराश रोगी जब एक आयुर्वेदिक चिकित्सक के पास जाता है,
तो आयुर्वेदिक चिकित्सक अस्थि धातु क्षय, और वात विकार मान कर जब चिकित्सा
करता है, तो उसके द्वारा दी गईं ओषधियों में मुक्ता, प्रवाल, आदि, युक्त
ओषधियाँ जिनमें कई जडीबुटी जो विटामिन डी बनाने वाले द्रव्य होते हैं, और
रोगी को धुप में बेठ अस्थि-मांस वर्धक चन्दनबाला लाक्षादी तेल, नारायण या
महानारायण तैल आदि का स्नेहन पान और मालिश में करके धुप सेवन की सलाह देते
हें, रोगी को विशेष प्रकार का भोजन आदि खाने का निर्देश भी होता हा, साथ ही
कुछ खाद्य जो विटामिन बनाने में बाधा उत्पन्न करते हें उनको परहेज कह कर
बंद कर दिया जाता है| इससे तेजी से विटामिन डी बनकर लाभ देता है | यह
प्रकृतिक बना विटामिन, कृत्रिम वीटा डी की गोली केप्सूल की तुलना में अधिक
लाभकारी और स्थाई लाभ देने वाला होता है|
चूना नहीं होता वीटा डी!
कुछ
लोगों का ख्याल है चूना आदि के सेवन से विटामिन डी मिलता है यह भ्रम है|
सोशल मिडिया पर इस प्रकार की कोई चिकित्सा आयुर्वेद में नहीं है, इनसे बचा
जाना चाहिए|
यकृत या लीवर है हमारा स्टोर रूम
यदि
अधिक विटामिन डी बन गया तो वह भी जमा हो जाता है| प्राकृतिक रूप से अधिक
मात्रा में बना विटामिन डी यकृत (लिवर) में जमा होता है, और यकृत शरीर के
अंगों की जरुरत के अनुसार खून के माध्यम से देता रहता है, इसीलिए यदि रोज
धुप न भी मिले तो हानि नहीं होती|
कृत्रिम वीटा डी की अधिकता अर्थात किड़नी डेमेज
यथा
संभव गोलों केप्सूल के रूप में कृत्रिम वीटा डी लेने से बचना चाहिए यदि
लिया भी जा रहा है तो नियमित जाँच और चिकित्सक की देखरेख में क्योंकि
कृत्रिम वीटा डी लीवर में जमा नहीं होती यह किडनी में एकत्र होकर मूत्र
द्वारा निकली जाती है, इसीलिए अधिक होने से निकल न पाने के कारण किडनी को
हानी करने वाली भी होती है|
कितनी धुप चाहिए?
एक
आंकलन के अनुसार प्रतिदिन 40-50 मिनिट, माह में 5 से 7 दिन वर्ष में 50
से 60 दिन धुप का सेवन कर लें तो विटामिन डी की पूर्ति हो जाती है| परन्तु
यह भी आवश्यक है की शरीर का 80 -90 % भाग खुला होना चाहिए, यदि इतना शरीर
खुला नहीं है तो जमा करने हेतु अधिक दिन लगेंगे|
क्या अधिक या तेज धुप हानि कारक होती है?
यह
भी जानना जरूरी है की तेज धूप विटामिन तो अधिक बनाएगी पर उस समय की
अल्ट्रा-वॉयलेट किरण से त्वचा जलने से हानि भी हो सकती है| इसलिए प्रात:
सायं की धूप जो आसानी से सहन की जा सके का सेवन उचित होगा|
सामान्यत: क्या करें?
घर से बाहर जा रहे है तो पुरी तरह चेहरा सहित कभी न ढकें, मोसम के अनुरूप चलें| उपरोक्त अनुसार सूर्य प्रकाश लेते रहें|
धुप के अलावा विटामिन डी के लिए और क्या करना चाहिये?
विटामिन
ए की तरह वीटा. डी भी तैलीय द्रव्यों में घुलनशील होता है, अत: भोजन/ खाने
में जब तक चिकनाई नहीं होगी यह तत्व नहीं मिल सकता| जो व्यक्ति भ्रम वश
हमेशा चिकनाई रहित (फेट लेस)खाना खाते हें उन्हें इनकी कमी का सामना करना
ही होता है| उन्हें सिंथेटिक विटामिन गोली खाना मज़बूरी हो जाती है|
हमारे खाने को इस प्रकार से व्यवस्था करना चाहिए की सभी खनिज, विटामिन, कार्बोज, प्रोटीन, फेट, आदि संतुलित मात्र में मिलते रहें|
विटामिन डी की पूर्ति निम्न खाद्य से चयन कर की जा सकती है|
ड्राई-फ्रूट्स,
डेयरी प्रॉडक्ट्स दूध, पनीर, दही, पनीर से मिलने वाला केल्शियम विटामिन डी
बनाने में सहायक होता है| मशरूम, पालक, बीन्स, ब्रोकली, चुकंदर, कमल
ककड़ी आदि सब्जियां, केला, संतरा, शहतूत, सिंघाड़ा आदि फल, बादाम, किशमिश,
खजूर, अंजीर, अखरोट, आदि ड्राय फ्रूट्स, और तिल, राजमा, मूंगफली, सभी में
केल्शियम अच्छा होता है, इन खाद्यों के सेवन से सूर्य प्रकाश द्वारा
संश्लेषण से प्रयाप्त विटामिन डी प्राप्त कर लीवर में जमा किया जा सकता है|
टूना मछली, मछली, अंडे और मीट, से कुछ मात्रा की पूर्ति हो सकती है पूरी
नहीं|
शरीर में भोजन के माध्यम से पहुंचा केल्शियम
सूर्य प्रकाश (धूप) से तो संश्लेषित होता ही है, पर रोज एक घंटे की
एक्स्सरसाइज़, योग, पैदल चलना, शारीरिक व्यायाम, रक्त में आये विटामिन डी को
पचाने में मदद कर हड्डियों को मजबूत करता है इसलिए यह भी जरुरी है|
यदि आप घर से बहार रहने पर सनस्क्रीन का प्रयोग करना ही चाहते हें तो प्रात: या सायं की धूप का सेवन अवश्य करें|
आयुर्वेद ही है अधिक बेहतर!
अन्य
पेथि की चिकित्सा की तुलना में आयुर्वेद चिकित्सा से समस्या का निराकरण
स्थाई किया जा सकता है, लगभग तीन माह तक सर्वांग धारा, सर्वांग स्नेहन
(मालिश), और चिकित्सक की सलाह से ओषधि खाना चाहिए| और हमेशा के लिए अच्छा
आहार, व्यायाम, योग, दिनचर्या और प्रतिदिन धूप सेवन से जुड़कर रोग मुक्त रहा
जा सकता है|
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